देश डिजिटाइजेशन के दौर से गुजर रहा है। माना जा रहा है कि यह हमारी आर्थिक गतिविधियों और समस्याओं के समाधान में मददगार होगा। जिस तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसके लिए एक लक्ष्य सामने रखा है, उससे यह जरूरी हो गया है कि देश में इंटरनेट को और बढ़ावा दिया जाए। गांव-देहात में इंटरनेट का प्रचार-प्रसार हो, हर व्यक्ति की इस पर पकड़ हो और यह आसानी से सुलभ हो। लेकिन भारत में ऐसा नहीं हो पाया है और सरकार के चाहने के बावजूद इस पर बंदिशें हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि यहां इंटरनेट की सुविधा प्रदान करने वाली कंपनियां हैं, जो इस पर अपना पूरा नियंत्रण रखती हैं। उन्होंने मोटी रकम देकर सरकार से नीलामी में स्पेक्ट्रम खरीदा। जाहिर है कि हर कारोबारी-व्यापारी का उद्देश्य मुनाफा कमाना ही होता है। ऐसा इस मामले में भी हुआ और इंटरनेट प्रदान करने वाली कंपनियों ने अपने मुनाफे के गणित के हिसाब से इसकी कीमतें तय कीं। नतीजतन इसका सार्वजनिक प्रसार नहीं हो सका। ज्यादा पैसे देने वालों को ज्यादा गति वाली इंटरनेट सुविधा मिली और बाकियों को कामचलाऊ।
भारत इंटरनेट की गति के मामले में अब भी फिसड्डी देश है। यहां 4जी कनेक्शन भी 2जी की तरह चलते हैं। इस साल की शुरुआत में जो आंकड़े मिले हैं, उनके मुताबिक भारत इंटरनेट की गति के मामले में दुनिया में 89वें स्थान पर है और वह श्रीलंका तथा वियतनाम जैसे देशों से भी पीछे है। यहां औसत गति 6.5 एमबीपीएस है, जबकि थाईलैंड में यह 16 है। इस गति से डिजिटाइजेशन का लक्ष्य आसानी से पूरा नहीं हो सकता है। इंटरनेट की गति जितनी तेज होगी, डेटा ट्रांसफर उतनी तेजी से होगा। तेज गति के इंटरनेट से एक साथ कई तरह के काम हो सकते हैं। आईटी इंडस्ट्री और बैंकों के लिए यह जरूरी है और इसके बिना काम सुचारू रूप से नहीं चल सकता है। इससे गलतियां होने की आशंका भी कम रहती है।
हमारे देश में इंटरनेट की धीमी गति का एक कारण यह भी है कि टेलीकॉम कंपनियों ने, जो मुख्य रूप से सेवा प्रदाता भी हैं, उपभोक्ताओं के लिए ऐसे प्लान बना रखे हैं, जिनमें कम पैसे वालों को बेहद धीमी गति की सुविधा मिलती है। भारत में इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की तादाद 50 करोड़ है। आने वाले समय में यह संख्या और तेजी से बढ़ेगी।
भारतीय टेलीकॉम नियामक प्राधिकरण यानी ट्राई ने हाल ही में स्पष्ट कर दिया कि इंटरनेट पर सबका अधिकार है और इसे स्वतंत्र होना चाहिए। उसका मानना है कि इंटरनेट देश की तरक्की के लिए एक बड़ा प्लेटफॉर्म है। इसके जरिये ही नए उद्यम पनपेंगे, ऑनलाइन लेन-देन बढ़ेगा, सरकारी कामकाज होंगे और डिजिटल इंडिया कार्यक्रम को बल मिलेगा। इसलिए यह जरूरी है कि इसे खुला और निःशुल्क रखा जाए, न कि पैसे से बांधा जाए। इसकी सेवा में किसी तरह का भेदभाव नहीं होना चाहिए। ट्राई के अध्यक्ष की इस तरह की रिपोर्ट के बाद अब यह स्पष्ट है कि इस देश में नेट न्यूट्रिलिटी का मुद्दा सुलझ जाएगा। काफी समय से यह विवाद उठ रहा था कि इंटरनेट पर किसका हक है। अरबों रुपये की नीलामी राशि देकर मैदान में उतरीं इंटरनेट और टेलीकॉम कंपनियों का कहना है कि उन्होंने इसमें बड़ा निवेश किया है और मुनाफा कमाने तथा अपना खर्च निकालने के लिए मनमानी कीमत वसूलेंगी। अभी तक हमारे यहां टेलीकॉम कंपनियां अलग-अलग ढंग से उपभोक्ताओं को इंटरनेट मुहैया करा रही हैं। यानी अलग तरह के इस्तेमाल के लिए अलग शुल्क। वे अलग तरह के यूजर से अलग किस्म का शुल्क ले रही हैं। वे अपने मुनाफे के हिसाब से उपभोक्ताओं को अलग-अलग तरह के प्लान बेच रही हैं। कुछ प्लान तो ऐसे हैं, जिनमें उन्हें मोटा मुनाफा मिल रहा है। कुछ ऐसे हैं, जिनमें उपभोक्ता को बेहद धीमी गति की इंटरनेट सेवा मिलती है। कई बार तो एक फाइल डाउनलोड करने में छक्के छूट जाते हैं। ऐसे में कोई भी बैंकिंग या वित्तीय लेन-देन संभव नहीं होता। बड़ी-बड़ी फाइलें तो छोड़िए, साधारण-सा वीडियो तक डाउनलोड करना मुश्किल होता है। इसीलिए तो नेट न्यूट्रिलिटी का मामला उठा।
इतना ही नहीं, बड़ी-बड़ी टेलीकॉम कंपनियां अपनी ताकत से किसी भी वेबसाइट या नेट आधारित सेवा को आसानी से ब्लॉक कर सकती हैं। वे किसी भी तरह की स्पर्धा पैदा नहीं होने देंगी और प्रतिद्वंद्वी कंपनियों के ऐप्स को बाधित भी कर सकती हैं। यानी वे बाज़ार को अपनी सुविधा के हिसाब से घुमा सकती हैं।
ट्राई की सिफारिश अब सरकार की नई नेट न्यूट्रिलिटी नीति का हिस्सा बनेगी। इसके बाद उपभोक्ताओं को बिना किसी भेदभाव के अबाध इंटरनेट सेवा मिल सकेगी। लेकिन इस मुद्दे पर टेलीकॉम कंपनियों की राय अलग है। उनका कहना है कि उन्होंने इसमें काफी निवेश किया है और इस तरह की आजादी से उनके कारोबार पर असर पड़ेगा। इससे सरकार को भी धक्का लगेगा, क्योंकि उसे स्पेक्ट्रम की नीलामी से बड़ी राशि मिलती है। इतना ही नहीं, वे अमेरिका का उदाहरण देते हैं, जहां अब फिर से ओबामा प्रशासन के दौर में शुरू हुई नेट न्यूट्रिलिटी खत्म करने की सिफारिश की गई है। हालांकि वहां भी इसका विरोध हो रहा है और कहा जा रहा है कि इससे मीडिया की स्वतंत्रता खतरे में पड़ सकती है, क्योंकि वह भी इंटरनेट पर निर्भर है। लेकिन हमें एक बात समझनी होगी कि अमेरिका पूंजीवादी देश है और भारत लोकतांत्रिक है और यहां हर सुविधा जनता के लिए है। यहां इटरनेट पर किसी का अधिकार नहीं है और यह हर किसी का है। इंटरनेट प्रदाता कंपनियां अब किसी खास साइट पर अंकुश नहीं लगा सकतीं या किसी को कोई खास वेबसाइट की ओर नहीं धकेल सकती हैं। यानी वे तटस्थ रहेंगी। इस धारणा और विचार के साथ ही नेट न्यूट्रिलिटी की बात हो रही है। ट्राई ने एक ऐसी सिफारिश की है, जिसके दूरगामी सकारात्मक परिणाम होंगे।